ईश्वर के प्रति श्रृद्धा के बिना धर्म आराधना का कोई महत्व नहीं: संत कुलदर्शन

शिवपुरी। चाहे आप कितनी भी धर्म आराधना कर लो। व्रत, उपवास, जप करलो। मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे में माथा टेक लो। लेकिन जब तक ईश्वर के प्रति मन में श्रृद्धा, अहोभाव और विश्वास न हो तब तक ऐसी धर्म आराधना फलीभूत नहीं होगी।
उक्त उदगार नव पद ओली आराधना के छटवे दिन दर्शन पद की महिमा का बखान करते हुए आराधना भवन में जैन संत कुलदर्शन विजय जी ने व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि ईश्वर को तो आप मानने का दावा करते हो लेकिन ईश्वर के प्रति सच्ची श्रृद्धा तब है, जब हम भगवान के कथनों, उपदेशों और सिद्धांतों को भी माने और उन्हें अपने आचरण में उतारें। प्रवचन में आचार्य कुलचंद्र सूरि जी ने मांगलिक पाठ धर्माबलंबियों को दिया। धर्मसभा में साध्वी मंडल भी उपस्थित था।
संत कुलदर्शन विजय जी ने आस्था, श्रृद्धा और विश्वास को धर्म का प्राण बताया। उन्होंने कहा कि श्रृद्धा का संबंध हृदय से है। यहां तर्क और बुद्धि बेमानी हैं। उन्होंने कहा कि ईश्वर रूपी शिखर तक पहुंचने के लिए दर्शन रूपी तलहटी से यात्रा प्रारंभ करनी होती है। श्रृद्धा को रेखांकित करते हुए संत कुलदर्शन विजय जी ने बताया कि पुत्र की मां के प्रति, शिष्य की गुरू के प्रति और भक्त की भगवान की प्रति श्रृद्धा अनुकरणीय है।
जिस तरह से पुत्र अपनी मां के पास अपने आप को सुरक्षित समझता है, मां उसे आसमान में उछाल देती है, तो भी वह हंसता रहता है। उसे विश्वास रहता हेै कि मेरी मां मेरा कोई अहित नहीं करेगी। वह अपना तन मां को समर्पित करता है। यह भले ही निम्र कोटि की श्रृद्धा है क्योंकि पुत्र को मां की याद तब आती है, जब वह भूखा होता है।
दूसरे नम्बर की श्रृद्धा शिष्य की गुरू के प्रति होती है। वह अपना मन गुरू को समर्पित करता है। जबकि भक्त अपने भगवान को तन-मन-धन और पूरा जीवन समर्पित कर देता है। इस सिलसिले में उन्होंने मीरा, नरसिंह मेहता, आनंदघन जी महाराज आदि की भक्ति को उत्कृष्ट बताया। उन्होंने कहा कि मीरा के पति दुनिया से चले गए, तब भी मीरा का जबाव था मेरे तो गिरधर गोपाल दूजो न कोय।
ईश्वर के प्रति श्रृद्धा की अभिव्यक्ति प्रेम से होती है। प्रेम में अपने प्रिय पात्र को देने के स्थान पर क्या छोड़ सकते हैं, यह महत्वपूर्ण है। भक्त को प्रेम के साथ प्रतिक्षा के लिए भी तैयार रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि धर्म आराधना के 6 माह के बाद भी यदि हमें फल प्राप्त नहीं होता तो अश्रृद्धा उत्पन्न होने लगती है, यह गलत है। भक्त वह है, जो जन्मों-जन्मों तक इंतजार करने के लिए तत्पर रहता है।
उन्होंने कहा कि प्रेम अपने साथ पीड़ा भी लाता है और भगवत प्राप्ति हेतु पीड़ा के लिए भी हमें तैयार रहना चाहिए, जो-जो भी सहन करने के लिए तैयार हो वहीं ईश्वर की ओर कदम बढ़ा सकते हेैं। अंत में उन्होंने प्राप्ति का जिक्र करते हुए कहा कि अपने आप को जो जान लेता है, वहीं ईश्वर है। जैन दर्शन में कहा गया है कि अप्पा सो परमप्पा अर्थात आत्मा ही परमात्मा है।